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यमला पगला दीवाना

फिल्मकहानी
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बॉलीवुड मे दशकों से मसाला फिल्मों का दौर चल रहा है| जहाँ 70 और 80 के दशक में शोले, शान और अमर अकबर एंथनी जैसी फिल्में बेहद सफल रही, वही आज के दशक में भी दबंग्ग, सिंह इस किंग और गोलमाल 3 जैसी फिल्में दर्शकों को बहुत पसंद आई है| शायद इसलिए की ये फिल्में दर्शकों को एक नही दुनिया मे ले जाती है और उन्हे रोज़ के तनाव से निजात और हँसने का मौका देती है| और शायद इसी कारण निर्देशक समीर कार्णिक ने एक ऐसी ही फिल्म बनाने की कोशिश की है जो दर्शकों के दिलों मे एक यादगार बन जाए पर अपनी इस कोशिश मे वे सफल नही हुए|

(और समीक्षा पढ़िए : http://filmkahani.com)


लंबे समय के बाद कार्णिक तीनो देओल एक साथ फिर पर्दे पर लेकर आए है| जहाँ अपनी पिछली फिल्म ‘अपने’ मे तीनो ने दर्शकों को भावुक किया वही इस फिल्म में वे दर्शकों को हंसा-हंसा कर पागल कर देने की ठान कर आए है| तीनो देओल अपने ‘दम दारू, दिलेरी और धमाल’ के लिए पर्दे पर जाने जाते है| कौन भूल सकता है धरम पाजी का पानी की टंकी से ‘सूसाईड” का दृश्य या फिर सन्नी का “ढाई किलो का हाथ” या ‘तारीख पर तारीख’ | निर्देशक समीर कार्णिक ने इन्ही दृश्यों को फिर से दर्शकों के सामने पेश करने की कोशिश की है और इसके लिए उन्होने धर्मेन्द्र के प्रसिद्ध गाने ‘यमला पागला दीवाना’ का उपयोग किया है|

धरम सिंह (धर्मेन्द्र) और गजोधर सिंह(बॉब्बी देओल) की बाप-बेटे की जोड़ी बनारस की सबसे बड़ी अपराधिक जोड़ी है जो सीधे साधे दिखने वाले लोगो को बेवकूफ़ बनाने का काम करते है| पर उनकी तकलीफ़ तब शुरू होती है जब कनाडा से परमवीर (सन्नी देओल) गजोधर का बचपन में बिछड़ा बड़ा भाई बनकर उनके पास आता है जो खुशी खुशी ये बात मान लेते है|

दूसरी तरफ गजेंद्र को एक पंजाबन लड़की साहेबा (कुलराज रंधावा) से प्यार हो जाता है पर साहेबा के भाई उसे गजोधर से दूर ले जाते है| पर परमवीर अपने भाई के लिए एक बहकाने वाली योजना बनता है और फिर शुरू होती है हास्य और दुविधा से भारी गोजधर की प्रेम कहानी|

फिल्म ‘यमला पागला दीवाना’ बहुत सारी फिल्मों से प्रेरित नज़र आती है| जहाँ एक भाग फिल्म दबंग्ग की याद दिलाता है तो एक दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे की| वही लेखक जसविंदर सिंह ने हर 15-20 मिनट मे सन्नी के ढाई किलो के हाथ का उपयोग किया है जो कभी कभी ज़रूरत से ज़्यादा लगता है| जसविंदर ने कहानी को बेहद लंबा खींच दिया है जिससे अंत तक पहुँचते पहुँचते दर्शक उब जाएँगे| फिल्म को थोड़ा छोटा करके भरपूर मनोरंजक बनाया जा सकता था|

यधयापि धर्मेन्द्र और सन्नी देओल ने दर्शकों को यादगार दृश्य दिए है, बॉब्बी देओल अपने फिल्मी पेशे में ऐसा कुछ करने मे नाकाम रहे है| शायद इसी कमी को पूरा करने के चक्कर में  समीर ने उन्हे ज़रूरत से ज़्यादा पर्दे पर समय दिया है पर यहाँ भी वे कुछ ख़ास कमाल नही दिखा सके| उनका अभिनय बेहद साधारण रहा और वे ज़रूरत से ज़्यादा कोशिश करते दिखे| सन्नी देओल का अभिनय फिल्म की जान रहा| एक तरफ अपने ढाई किलो के हाथ और गदर की ‘नलकूप’से वे दुश्मनो को मारते रहे वही दूसरी तरफ उन्होने भावुक दृश्यों में अभी अच्छा अभी अभिनय किया| 75 साल के होने के बाद भी धर्मेन्द्र के अभिनय मे कुछ कमी नही आई है और वे हमेशा की तरह बेहतरीन लगे| जहाँ अनुपम खेर और जोह्नी लीवर सदाबहार है वही बाकी कलाकार ठीक ठाक है|

फिल्म का संगीत साधारण है और एक दो गानों को छोड़कर दर्शकों को ज़्यादा रास नही आया है|

संपूर्ण मे कहे तो फिल्म बीच बीच मे दर्शकों को हँसने का भरपूर मौका देती है पर कुछ जगह घिसे-पीटे दृश्य दोहराकर समीर ने मज़ा थोड़ा किरकिरा कर दिया| उसके उपर फिल्म की लंबाई दर्शकों को फिल्म से दूर ले जाएगी|

निर्देशक समीर कार्णिक  पुराने प्रसिद्ध दृश्यों से ट्रेलर बनाकर ज़रूर दर्शकों को एक बार सिनिमा हॉल तक खींचने मे सफल रहेंगे पर उसे बरकरार रखना बेहद मुश्किल होगा|

अंक:**1/2


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